Saturday, October 1, 2011

हाँ, मैं हूँ कवि !

हाँ, मैं हूँ कवि !
कारण,
वियोग है मन में
आँखों से कविता छलकी
और आह छिपा गायन में
हां ,
मै हूँ कवि !!

----------------- --- अरुन श्री !

अम्मा

जब भी रोते - रोते हंस दी
मुझको बहुत सुहाई अम्मा

जेब में वापस रख देती है
लेती नही कमाई  अम्मा

"तुम ही ह़ो धन दौलत मेरे"
कहकर बस मुस्काई अम्मा

बचपन में जब भी रोया मैं
खुद बन गई मिठाई अम्मा

ममता की डोरी से मुझको
देना  नही रिहाई  अम्मा

जब भी  उससे रूठ गया मै
रो-रो कर अधियाई अम्मा

पहले सी मासूमियत

याद आता है
अपना बचपन,
जब  हम उड़न में रहते थे
बेफिक्री के असमान में रहते थे
दिन गुजरता था बदमाशियों में
पर रात अपने ईमान में रहते थे !
याद आता है,
दिन भर तपते सूरज को चिढाना
आंधियो के पीछे भागना
उनसे आगे निकलने की कोशिश करना
जलती तेज हवाओं से हाथ मिलाना,
और फिर ..............
पता ही नही चला कि
कब माँ के कहानियो की गोद से उठकर
हमारी नींद सपनो के आगोश में चली गई !

दिन से अच्छी थी रातें
हमेशा से
और ईमानदार भी !
इन्ही रातों की
चमकती चांदनी की रेत में लिपटे हुए
अपने आप में खोए
अपने मासूमियत के दायरे में सिमटे हुए
अक्सर ये वादा किया खुद से
की छोड़ेंगे नही,
बचपन की मासूम मुहब्बत को !
उसी चमकती रेत को बताया
अपना पहला सपना,
उसी की हंथेली पर लिखा
अपने पहले प्यार का नाम,
जब खुश हुए
उसी की गोद में किलकारियां भरी,
जब उदास हुए
उसी के सिने लिपट कर रोए भी !

याद आती है आज
वो माँ की कहानियो से भरी रातें !
वो रातें भी,
जो अकेले में
चांदनी से बतियाते हुए खर्च कर दी !
वो अनमोल रातें
चमकती रेत सी रातें
काम से काम चुभती तो नही थी,
सड़को के धुल की तरह
आँखों में !

आज सोचता हूँ अक्सर
कि इन चमचमाती सड़को से भली थी
अपने गाव कि पगडंडियाँ,
जिन पर चले
कई बार गिरे
और संभल भी गए
कभी हिम्मत नही छूटी !
हर लड़खड़ाहट पर निश्चय किया
"हारेंगे नहीं !"
"टूटेंगे नहीं !"
लेकिन आज हरा दिया
इन सड़को कि रफ़्तार ने,
धीमी पड़ गई सपनो की गति,
भूलने की कगार तक आ पहुंचा
बचपन से किया हर वादा!
बड़ी बड़ी इमारतों से
ढक गया चाँद !
कही खो गई
दिनों के बोझ तले
चांदनी की चमकीली रेत
अब आँखों में नही चमचमाती
अब तो चुभती है
सड़को की धुल !
दिन अब उर्जावान नही रहे ,
बोझिल ह़ो गए !
रातें अब ईमानदार नही रही !
और हममे भी नही रही
पहले सी मासूमियत !!!!

........................................ अरुन श्री !

कहानी फूल की

क्यों मिली है कुछ पलों को बागवानी फूल की
उम्र   भर  कहते  रहेंगे हम   कहानी फूल की

वो मेरे सीने से लगकर हाले-दिल कहते रहे
फूल  सी बातें सुनी हमने  जुबानी फूल  की

मनचले भवरे चमन  के  पास मंडराने लगे
चुभ रही है आँख में सबके जवानी फूल की

क्या पता किस बात पर वो हँसते-हँसते रो पड़ी
मैं समझ पाया न तबियत की रवानी फूल की


.......................................................अरुन श्री !

रूठ न जाना

साथ चले ह़ो तो जीवन भर साथ निभाना
साथी,
रूठ न जाना !

मैंने कब ये चाहा था तुम
मुझपर सर्वश्व न्योछावर कर दो
कब चाहा था मैंने तुम
अपने इन कोमल कंधो पर
मेरी आशाओं का अम्बर लो
पर तुम आए
आँख झुकाई
हौले से
थोडा मुस्काए
और मेरे बोझिल कंधो पर
फूल सा अपना हाथ रख दिया
मेरे थके बिंधे पंखो को
फिर से नई उडान मिल गई
ऊपर अम्बर नीचे सागर
फिर भी धुंधलाते नयनो को
सागर तट की पहचान मिल गई
उठेंगे तूफान तो उनमे खो मत जाना
साथी,
रूठ न जाना !

योग्य नही संभवतः इसके
फिर भी पाया प्यार तुम्हारा
है सहश्त्र आभार तुम्हारा
मात दिया तेरे आँचल ने
सूरज की तपती किरणों को
मेरी खातिर
तपते रस्ते पर
तुमने शीतलता कर दी
मुझ पाषाण ह्रदय में तुमने
थोड़ी सी कोमलता भर दी
दुःख पहुचेगा, अब मत ठेस लगाना
साथी,
रूठ न जाना !
 
 
----------------------------------अरुन श्री !