Monday, March 12, 2012

कन्यादान


कन्यादान-
वो अलौकिक शब्द ,
जो ले जाता है हर माँ को
बेटी के बचपन तक ,
स्मृतियों के आंगन तक !
.
बार बार नज़र उठती है
छुप छुप कर ,
रुक रुक कर ,
टीन के पुराने बक्से में बंद
गुड्डे-गुड़ियों की ओर !
और नयन  कोर
बार बार भीगते है ,
भीग भीग सूखते है !
.
आज देखकर
दुपट्टा संभालती बेटी को ,
अचानक याद आ जाती है
बदन में धूल
और बालों में पुआल लपेटे ,
दिन भर की थकन आखों में समेटे
सामने खड़ी बेटी !
जो सोती भी ना थी
बिना माँ की धड़कन सुने !
.
आज सोचती है
बहुत दिन हुए ,
बेटी को अपनी धड़कन सुनाए !
दुनियादारी की बातें सुनते सुनते
अब तो भूल भी गई होगी !
फिर से मन करता है
कि बेटी को सीने से लगाए ,
उसे धड़कन सुनाए
और सपने भी
जो उसके लिए बुनती रही
अब तक !
.
दान-
प्राण में बसी बेटी का
कितना दारुण ,
लेकिन कितना महान !
ये भी तो है
कर्ण का सा महादान !
लेकिन फिर भी डर है ,
आकुल अंतर है -
कि दान लेने वाला
कहीं इन्द्र तो नही ?
.
.
............................. अरुन श्री !

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