काश !
कोई दिन मेरा घर में गुजरता
बेवजह बातें बनाते
हँसते – हँसाते
गीत कोई गुनगुनाते
पर नही मुमकिन
मैं दिन घर में बिताऊँ!
एक नदी प्यासी पड़ी घर में अकेले
और रेगिस्तान में मैं जल रहा हूँ
थक चुका पर चल रहा हूँ
ढूढता हूँ अंजुली भर जल
जिसे ले
शाम को घर लौट जाऊँ
प्यास को पानी पीला दूँ !
मेरे आँगन की बहारों पर
जवानी छा गई है
और मैं
धूप के बाज़ार में बैठा हुआ हूँ
सूखता हूँ
भीगी लकड़ी की तरह से
घर के चूल्हे में
अभी जलना भी होगा !
चाहता हूँ
मेरे आँगन की बहारें
खिल उठे
प्यार का मेरे मधुर स्पर्श पाकर
सोचता हूँ डूब जाऊँ
प्यार की प्यासी नदी में !
पर विवश हूँ
क्या करूं मैं
भूख की रेखा खिची है ,
प्रश्न रोटी का खड़ा है बीच अपने
और उत्तर ढूंढना है !!
............................................ अरुन श्री!
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