Monday, March 12, 2012

ग़ज़ल - ऊँची ईमारत


बेवफा होना तेरा क्या क्या सितम ढाने लगा
अब तो मैं मंदिर में भी जाने से घबराने लगा

हो अलग तुमने जला डाली थी मेरी याद तक
मैं तेरी तस्वीर से दिल अपना बहलाने लगा

भोर की पहली किरण जिसको चुराकर मैंने दी
दूसरे के घर को अब वो फूल महकाने लगा

सर्द रातों में लिपट जाता था कोहरे की तरह
मैं बना सूरज तो दुःख का चाँद शरमाने लगा

घर के आगे जब से इक ऊँची ईमारत बन गई
मेरे घर आने से अब सूरज भी कतराने लगा




…………………………………........…................. अरुन श्री !

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